मैं दंग हूँ
लोगों के बचपने पे
उनकी बेवकूफियों पे
मैं दंग हूँ
कोई उम्र में छोटा है
तो उसको कुछ भी बोल दो
कोई काम पे नया है
तो उसके नाम पर खेल दो
मैं दंग हूँ
अपनी सीमाएं लाघने में इन लोगों को कोई शर्म नहीं
क्या कह रहे क्या कर रहे – इन चीज़ों में कोई तर्क नहीं
पलट के जवाब दो तो मुख यों सिल जाता हैं
जैसे मुहं में जुबां और ज़ेहन में कोई शब्द नहीं
मैं दंग हूँ
जो निकम्मे नकारे हैं, अपना काम ढंग से करते नहीं
वो बातें खुद पे आने पे आरोपवाद ही करते हैं
मैं दंग हूँ
जब सामने दे मारो दस्तावेज़ सबूतों का
तो उनकी हवाइयां कुछ ऐसे उड़ जाती हैं
जैसे जल बिन मछली पल पल
मर जाने को छटपटाती है
मैं दंग हूँ
ख़ुशी इस बात की होती है कि इस खोखले समाज में भी
अच्छे लोग मौजूद हैं
सच कहूँ, इस बात पे मैं ज़्यादा दंग हूँ!
जीत आखिर मेरी हुई सच की हुई
इस बात से मैं दंग हूँ
लेकिन हाँ! मैं खुश हूँ…
Nice poetry.
Sachchai ki humesha jeet hoti hai vaqt chahe jo lage kabhi dekha hai andhere ne sawera na hone diya ho.
Thanks Maa
Awesome. ! love it mam, you expressed the thing that connects me with poetry.
Thanks