तस्सवुर का आलम और आशिकी का मौसम
ये सारे कितने बेनूर होते
गर कवी न होता…
चाहत की मंज़िल और इश्क़ का मुक़ाम
ये सारे कितने बेजुनून होते
गर कवी न होता…
उसको पा कर खोना या खोने में पा लेना
इनका मज़ा कितना फीका पड़ जाता
गर कवी न होता…
दिल्लगी से दिलजले तक और दिलफेंक से दिलदार तक
इन सब की रवानी कहाँ ऐसी फ़लक पर होती
गर कवी न होता…
प्रेम से कवी है या कवी से प्रेम
ये तो वैसे ही हुआ
जैसे मुर्गी से अंडा है या अंडे से मुर्गी
जो दुनिया में इश्क़बाज़ों का मेला न होता
दिल की दुहाई का लेना देना न होता
तो कवी क्या लिखता …?
सच में
गर कवि न होता …….