सरस्वती पूजा, मेरा बचपन और भारत
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सरस्वती पूजा, मेरा बचपन और भारत

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सरस्वती पूजा के साथ बचपन की ढेर सारी यादें जुड़ी हैं । अब कहाँ नसीब होता है वो सब । जैसा की आप सब जानते ही हैं, मेरा बचपन बिहार के बेगूसराय ज़िले में बीता है । हमारे यहाँ हर त्योहार काफ़ी धूम धाम से मनाया जाता है । हर मोहल्ले में दो-तीन सरस्वती संघ होते हैं जो विभिन्न कार्यक्रमों के साथ सरस्वती माँ की मूर्ती की पूजा और प्रसाद वितरणकरते हैं । मुझे याद है, जब मैं सातवीं या शायद छठी में पढ़ती थी, तब मैं एक कार्यक्रम के दौरान सरस्वती माँ बनी थी । मम्मी की सफ़ेद सिल्क की साड़ी और माथे पे भाड़े का मुकुट पहन मैंने खुद को उस एक दिन के लिए वाकई में विद्या की देवी मान लिया था । मेरी सोच और दृढ हो गयी थी जब मोहल्ले की औरतों ने मेरे पैर छूने शुरू कर दिए थे ।

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हर पुरानी परम्परा को आज कल अन्धविश्वास का नाम देकर पीछे छोड़ दिया जाता है या उन रिवाज़ों की नैशनल टीवी पर खिल्ली उड़ा दी जाती है । लेकिन अगर देखा जाए तो हमारे बचपन की यादें तो उन्ही खूबसूरत लम्हों से सजी होती है । कुंवारी पूजन में जा कर भोज खाना, गुलाल और रंगों के साथ माल पुए की खुशबू, दिवाली पर पटाखे चलने के लिए पूजा के दौरान बेसब्र होना और सरस्वती पूजा पर न पढ़ने का जायज़ बहाना मिल जाने पर खुश होना – यही तो हैं हमारी संस्कृति के अंश जो हमारे बचपन को यादगार बनाते हैं ।

खैर, इस वर्ष सरस्वती पूजा के दिन मैं भारत में नहीं थी । लेकिन मेरी भारतीयता मेरे साथ थी । मैंने बिदेस में ही अपने घर में सरस्वती माँ को विराजमान किया और पूरी भक्ति से उनकी पूजा की ।

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हालांकि पूजा के एक दिन पहले तक मैं दिल्ली में थी और मुझे काफ़ी मूर्तिकारों से मिल पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उनकी रोज़ी रोटी आज भी त्योहारों के भरोसे चलती है । वो आज भी अपने हाथों से मूर्तियां बनाते व सजाते हैं । नांगलोई के राजबीर हों या द्वारका के सुरेश – वो सब खुश थे क्योंकि साल में कभी कभी ही उनकी झुग्गियों के पास बड़ी बड़ी गाड़ियां रूकती हैं । और वैसा एक समय सरस्वती पूजा के चलते आ गया था । मैंने अपनी तरफ से उन दोनों को एक सौ ग्यारह रुपए का शगुन दिया । डोलचास्पी के बात ये है कि उन दोनों ने मुझसे गुज़ारिश की कि मैं एक छोटी मूर्ती ले लूँ , मुफ्त में पैसे लेना उन्हें गवारा नहीं था ।

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अगर एक नज़रिये से देखा जाये, तो न जाने कितनी कहानिया और कितनी ज़िंदगियाँ जुड़ी होती हैं त्योहारों से । आशा करती हूँ कि हमारी अगली पीढ़ी को भी इन खूबसूरत उत्सवों को इसी तरह जीने का मौक़ा मिल सके ।

About Post Author

Surabhi Pandey

A journalist by training, Surabhi is a writer and content consultant currently based in Singapore. She has over seven years of experience in journalistic and business writing, qualitative research, proofreading, copyediting and SEO. Working in different capacities as a freelancer, she produces both print and digital content and leads campaigns for a wide range of brands and organisations – covering topics ranging from technology to education and travel to lifestyle with a keen focus on the APAC region.
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