ऑटो में मेट्रो में बाइक की सवारी पर
थोड़ा सा, जी भर के सो लेता हूँ
तकलीफों को मुश्किलों को
दर्द को सोच के,
थोड़ा सा, जी भर के रो लेता हूँ
ये करता हूँ अक्सर दफ्तर जाते हुए रोज़ सुबह
क्योंकि वक़्त नहीं है
आवा जाहि खर्च कमाई में इस कदर बीत रही ज़िन्दगी कि
कमबख्त वक़्त नहीं है
गाड़ी कि पिछले सीट पर बस में स्कूटी पर
थोड़ा सा, जी भर के खो लेता हूँ
ख्वाबों में, सपनो में, उन भूली हुई ख्वाहिशों में
थोड़ा सराबोर हो लेता हूँ
न जाने ये कैसा चक्र है जो जीने को वक़्त नहीं देता
ज़िन्दगी बनाते बनाते ज़िन्दगी ही तंग है
इसलिए सोचता हूँ, अच्छा है दफ्तर दूर है
क्योंकि घर से दफ्तर के रस्ते में मैं
खुद में खुद को डुबो लेता हूँ
ठीक लगे या बुरा लगे, लेकिन हकीकत तो यही है
कि छुछुंदर कि तरह दौड़ रहे है हम
जीवन में जीवन कि तलाश में
इसलिए ऐ दोस्तों, रोज़ सुबह, इंसान हूँ,
थोड़ा सा, जी भर के जी लेता हूँ…